गुल्ली डण्टा मे राजेश मस्त पीलीयर था, तभी पता चलता की मास्टर साहब की निंद पुरी हो गई और वे जोर से पुकारते "अरे चल सन अब पढाईयो त कल जा" फिर अपने-अपने बोरे को झाडते और बैठ जाते फिर शुरु होता नागरिकशास्त्र की पढाई, पर पढाई मे मन किसका, सभी का मन तो बैधनाथ चाचा के जामुन के पेड पर लगा होता था,पता नही कैसे-कैसे टाईम पास होता फिर आता खेल की धण्टी और शुरु होता कब्ड्डी की बाजी, सारे पीलीयर अपने अपने कपडे उतार मैदान पहुच जाते देखने वालो की भी कमी नही थी कुबेर भाई सबसे आगे होते थे, लेकिन जैसे ही भौजी की आवाज सुनते की बस पार वहा से, भौजी के मुँह से गालियों की बोछार होती थी, फिर छुट्टी होती और सभी दौडते हुये घर की ओर भागते
घर पहुचने पर माँ जी थाली परोसते हुये बोलती "सुन खाना खा ल और पापा ओह पार हरीअरी लावे गईल है तु भी जा, जल्दी हो जाई" बस फिर क्या था उस पार पहुचे की दीदी लोग के आवाज और ऊ भी फरेनवा जामुन के पेड के तरफ से बडा धर्म संकट पापा के पास जाये की जामुन खाये, फिर बाद मे सोचे की चल यार पापा से दु-तीन झापड खा लेब लेकीन जामुन त जरुरे खाईब, बस फिर क्या पहुच गये जामुन के पेड के पास और फटा फट पेड के ऊपर चढ जाते बस दीदी का ईन्शट्र्क्शन शुरु- अरे जामुन के पेड अद्राह (कमजोर्)होखलई तनिक सम्भल के न त गिरबे त सब जामुन धईले रह जाई मन भर फरेनवा जामुन खाने मजा ही कुछ और था, जामुन खाने पर जीभ एक दमे काला हो जाता था फिर पकडाने का डर अलग,तो फिर हम नीमक खाते और बाँस के दतुवन के जीभा से तीन चार बार जीभा करते और ऊसके बाद कुछ खा लेते तभी ननकी चाचा दीखाई पडते फिर क्या बात! अरे भाई ननकी चाचा के साथ भैस नहलाने का जो मौका मिलता था ऊसका कोई जोर नही वो अपने आप को गाँव मे भैस के मामले मे सुपर आदमी समझते और क्या मजाल की कोई कुछ बोल दे और ऊनका बात काट दे चाहे वो मसला खेती का हो या पंचायती का ऊनके तर्को के आगे सभी पस्त हो जाते, हम शाम को ऊनके साथ घर पहुचते और पापा जी के डाँट से बचत हो जाती थी फिर रात को एभेरेडी लालटेन या फिर दिया मे पढाई होता....
Thursday, May 8, 2008
Tuesday, May 6, 2008
हमरा गवही मे रहे के विचार बा
शहर की धमा-चौकडी से अब मन भर गया पुरे बारह साल से एक खानाबदोश की तरहे जिन्दगी जीते जीते अब अधमरा सा हो गया हुँ यहाँ के काले धुयें से तो जैसे एक लगाव सा हो गया है क्योकी ये बिन बुलाये ही मिल जाती है जबकि यहाँ दोस्ती भी पैसे से मिलती है पेशे से एक आई टी प्रोफेश्नल, पेट अब थोडे से आगे की ओर खिसक रही है आज गाव की याद बहुत आ रही थी क्योकी माँ जी बीमार है खेत मे खुरपी चला रही थी हाथ मे लकडी घुस गया ईलाज चल रहा है अजीब कश्मकश है सारे दोस्त आज भी कापसहेडा बार्डर पर एक्स्पोर्ट कम्पनी में काम करते है कुछ यादे है जिन्हे मै समेटना चाहता हुँ पर लगता है उन्हे समेट्ने को शायद मेरे पास वक्त नही ईसलिये सोचा चलो ब्लोग ही लिख डालते है...
अब वो सारी बाते एक बीते हुये परीकथा की तरह लगती है हमारे दिन की शुरुआत माँ जी पुकारने पर ही शुरु होती, तब हम आँख मीचते उठते और सीधे नदी के तरफ, मैदान वगैरह हो कर अब दातुन की बारी आती और हमारे पास होते ढेरो आप्शन नीम,बबुल,बाँस आखिर मे बाँस पर ही मन अटकता क्योकि ये आसानी से नदी के किनारे मिल जाताअब बारी आती नहाने की तो बस पुछीये मत नदी मे जो एक बार कुदे की बस हो गया भोलवा से लेकर राजेश,राकेश्,भगत जी,लंगडा और पुरे मलाही पट्टी के सब के सब कुद पडते और बस सारे खेल शुरु तभी बीच मे कोई बोलता की रे ओह पार के कान्ही वाला लीची देखले एक दमे मस्त साला एगो खईले की बेटा मीठाई भुला जएबे, बस फिर क्या "अन्धा पाओ दुआख" सारे वानर सेना एक साथ कुच कर जातेकुबेर भाई की लीची की पेड् साला पकडा गेले त बोखार छोडा देथुन, थोडी सी खरखराहट की सबके सब नदी में धम्म तभी याद आता की आरे तेरी के लुल्वा के केरा के पेड कटायल है फिर सबके सब गोली लेखा भागते और केला के थम्ब लेके नदी मे कुद जाते फिर मस्त धमाल पता ही नही चलता की कब टाईम निकल गया सब के सब नंग धढंग तभी पापा की गरजती आवाज "रे मास्टर साब आ गेलन तु सब निकलबे की आऊ हम"सबके सब नदी से निकल भागते और गिरते पडते घर पहुचते
दादी दुआरे पर खडी रहती आज तोहरा के मार के बोखार गिरा देतऊ तोहर बाप, गेले की न रे जल्दी से स्कुल बस हम झटपट खाते और स्कुल के लिये निकल पडते, सीधे रास्ता न पकड कर जोतल खेत राहे भागते की जल्दी पहुँच जायेपहुचने पर घेघवा वाला मास्टर साहेब सामने- का हो आजकल खुब मस्ती होईत बा तोहनी के, हम सब देखई तारी, हई जा आ एक लोटा पानी ले आव जा... पहली घण्टी हिन्दी से शुरु होती या गणित से उसके बाद हम बेरा(गाव के प्रचलित टाईम देखने का तरीका) को घडी घडी देखते की कब सुरुज भगवान ओकरा छुवस, बस छुला के देरी की टिफिन, सब के सब आपन आपन बोरीया बस्ता ले के फिरार आ ओकरा बाद सीधे घर, खाओ और फिर भागो, अब टीफीने मे गुल्ली ड्ण्टा शुरु....मस्त
क्रमश:.............
अब वो सारी बाते एक बीते हुये परीकथा की तरह लगती है हमारे दिन की शुरुआत माँ जी पुकारने पर ही शुरु होती, तब हम आँख मीचते उठते और सीधे नदी के तरफ, मैदान वगैरह हो कर अब दातुन की बारी आती और हमारे पास होते ढेरो आप्शन नीम,बबुल,बाँस आखिर मे बाँस पर ही मन अटकता क्योकि ये आसानी से नदी के किनारे मिल जाताअब बारी आती नहाने की तो बस पुछीये मत नदी मे जो एक बार कुदे की बस हो गया भोलवा से लेकर राजेश,राकेश्,भगत जी,लंगडा और पुरे मलाही पट्टी के सब के सब कुद पडते और बस सारे खेल शुरु तभी बीच मे कोई बोलता की रे ओह पार के कान्ही वाला लीची देखले एक दमे मस्त साला एगो खईले की बेटा मीठाई भुला जएबे, बस फिर क्या "अन्धा पाओ दुआख" सारे वानर सेना एक साथ कुच कर जातेकुबेर भाई की लीची की पेड् साला पकडा गेले त बोखार छोडा देथुन, थोडी सी खरखराहट की सबके सब नदी में धम्म तभी याद आता की आरे तेरी के लुल्वा के केरा के पेड कटायल है फिर सबके सब गोली लेखा भागते और केला के थम्ब लेके नदी मे कुद जाते फिर मस्त धमाल पता ही नही चलता की कब टाईम निकल गया सब के सब नंग धढंग तभी पापा की गरजती आवाज "रे मास्टर साब आ गेलन तु सब निकलबे की आऊ हम"सबके सब नदी से निकल भागते और गिरते पडते घर पहुचते
दादी दुआरे पर खडी रहती आज तोहरा के मार के बोखार गिरा देतऊ तोहर बाप, गेले की न रे जल्दी से स्कुल बस हम झटपट खाते और स्कुल के लिये निकल पडते, सीधे रास्ता न पकड कर जोतल खेत राहे भागते की जल्दी पहुँच जायेपहुचने पर घेघवा वाला मास्टर साहेब सामने- का हो आजकल खुब मस्ती होईत बा तोहनी के, हम सब देखई तारी, हई जा आ एक लोटा पानी ले आव जा... पहली घण्टी हिन्दी से शुरु होती या गणित से उसके बाद हम बेरा(गाव के प्रचलित टाईम देखने का तरीका) को घडी घडी देखते की कब सुरुज भगवान ओकरा छुवस, बस छुला के देरी की टिफिन, सब के सब आपन आपन बोरीया बस्ता ले के फिरार आ ओकरा बाद सीधे घर, खाओ और फिर भागो, अब टीफीने मे गुल्ली ड्ण्टा शुरु....मस्त
क्रमश:.............
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