Thursday, July 2, 2009

हमसफर

जब हम मिले वो दिन खुब थे
चारो तरफ़ रंगिनीयाँ थी
घूमते रहें...
ख्वाबो की तंग गलियों से कभी निकले ही नही
बस चलते गये
टूटा ख्वाब ...
गहरी हुई बोझिल परछाईयाँ
कलतक जिन अदाओं पे मरते थे
वो बोझिल से हो चले...
फासले अब अपने दरमिया बढ़ते ही गए ...
पर ...
अब खत्म हो सफर
ये चाहत नही मेरी...
बस...

दुआ है यही ...
यु ही सही,
सफर जिंदगानी का
कटता रहे
हमें बस
इस बात का गुमां रहे
हमसफर अपने साथ तो है

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